अपना पेट पालने के लिए क्यों लेनी पड़ी थी दूसरों से मदद, जानिये मदर टेरेसा के जीवन से जुड़े अनसुने तथ्य

By Ek Baat Bata | Aug 26, 2020

दुनिया में अपने लिए तो सभी जीते है लेकिन असल  में मनुष्य वही होता है जो दूसरों के लिए जीए और मानव कल्याण की बात करें।हमारा इतिहास ऐसे कई मनुष्यों के उदहारण से भरा है जिन्होंने अपना पूरा जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में न्योछावर कर है।मदर टेरेसा भी उन्हीं महान लोगों में से एक है। टेरेसा ने अपना सम्पूर्ण जीवन सिर्फ दूसरों के परोपकार और श्रद्धा भाव में गुजार दिया। मदर टेरेसा  ने अपना जीवन असहाय और गरीबों की सेवा और सहायता करने में लगा दिया। उनका असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था।मदर टेरेसा छोटी ने उम्र से ही असहाय और गरीबों की जिंदगी खुशियों से भरने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। मदर टेरेसा की सबसे खास बात ये थी कि उन्होंने सेवा निस्वार्थ भाव से बिना भेदभाव के किया था। मदर टेरेसा सादे भी अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ी हैं।

प्रारम्भिक जीवन

26 अगस्त, 1910 में स्कॉप्जे में जन्मी मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। उनके पिता का निधन बचपन में ही हो गया था और उनका पालन- पोषण उनकी माँ द्राना बोयाजू ने किया था। मदर टेरेसा अपने भाई बहनों में सबसे छोटी थी। वह शुरू से ही परिश्रमी थी। उनको पढ़ने के साथ ही गाने का भी शौक था और वह अपने गिरजाघर में अपनी बहन के साथ मुख्य गायिका थी।11 साल की उम्र में ही उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा में लगाने का निश्चय कर लिया था।

भारत में मदर टेरेसा का आगमन

मदर टेरेसा जनवरी, 1929 में भारत आई थी। यहाँ उन्होंने कोलकाता के ‘लोरेटो कॉन्वेंट’ का रूख किया। वह एक डिस्पिन्ड अध्यापिका थीं और अपने विद्यार्थियों से उनसे बहुत जुड़ी हुई थी। वह साल 1944 में यहाँ की हेडमिस्ट्रेस बन गई। लेकिन तब उनका ध्यान शिक्षा की तरफ नहीं बल्कि वहां की आसपास की गरीबी और लाचारी पर था। साल 1943 के अकाल के समय में वहां बड़ी संख्या में लोगों का निधन हुआ और साल 1946 के हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने तो कोलकाता शहर की स्थिति और भी तहस नहस कर दि।इसके बाद ही 1946 में ही उन्होंने अपना मन गरीबों, असहायों, लाचारों और बीमारों के सेवा में लगा दिया। उन्होंने पटना के होली फॅमिली हॉस्पिटल से अपनी नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और फिर वह वापस कोलकाता आ गई। फिर वह तालतला में गरीब बुजुर्गो की देखभाल करने वाले संस्था के साथ रहने लगी और फिर उन्होंने धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा जिनमें  देश के उच्च अधिकारी और भारत के प्रधानमंत्री भी शामिल थे, उनके कार्यों की सराहना की गयी।

मदर टेरेसा के संघर्ष का शुरूआती दौर

मदर टेरेसा के मुताबिक जब उन्होंने नर्सिंग के बाद अपना कार्य कोलकाता में शुरू किया तो शुरूआती दौर में यह उनके लिए बहुत ही कठिन था। वह लोरेटो छोड़ चुकी थीं इसलिए उनके पास बिल्कुल भी पैसे नहीं थे और उनको अपना पेट पालने के लिए तक के लिए भी दूसरों की मदद लेनी पड़ी थी। उनका जीवन इतना संघर्ष से भर गया था कि उनका मन लोरेटो की सुख-सुविधायों में वापस लौट जाने का भी किया  लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने कार्य में लगी रही।7 अक्टूबर 1950 में उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ की स्थापना की अनुमति मिल गयी और मात्र 13 लोगों के साथ उन्होंने "मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी" की शुरुआत की। इस संस्था का उद्देश्य ही ऐसे लोगों की सहायता करना था जिनके लिए समाज में कोई जगह नहीं थी। उन्होंने यह साबित कर दिया कि अगर कोई काम सच्ची लगन और मेहनत से किया जाए तो कार्य सफलता अवश्य ही दिलाता है। गंदी बस्तियों में सेवा करने की वज़ह से एक पश्चिमी व्यक्ति ने उन्हें ‘गटर की संत’ तक कहा था लेकिन वह कहतीं थीं कि जख्म भरने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठ से ज्यादा पवित्र होते है।

पुरस्कार और सम्मान 

मदर टेरेसा को लोगों की सेवा करने के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए है।

1)1962 में भारत सरकार ने मदर टेरेसा को पद्मश्री अवार्ड्स से नवाज़ा था।उसके बाद सन् 1980 में उन्हें  देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा गया। 

2)सन् 1985 में उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा उन्हें मेडल आफ़ फ्रीडम से नवाज़ा गया था।

3) सन् 1979 में उन्हें मानव कल्याण के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उन्हें यह पुरस्कार ग़रीबों की सेवा और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। उन्होंने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को गरीबों के लिए फंड के तौर पर इस्तेमाल किया।

मृत्यु

मदर टेरेसा की बढ़ती उम्र के साथ ही उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया और 73 (1983)  वर्ष की आयु में ही उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। फिर सन् 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा पड़ा और धीरे-धीरे 1991 में उनकी ह्रदय की परेशानी और भी बढ़ गई।मार्च 1997 को उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी के मुखिया का पद छोड़ दिया और सितम्बर, 1997 को उनका देहांत हो गया।