झाँसी की रानी की वीर गाथा, जिन्होंने अंग्रेजों के दांतों चने चबा दिए

By Ek Baat Bata | Jun 24, 2020

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी, महिलाओं के सम्मान का प्रतीक और यह साबित करने वाली की महिलाएं पुरुषों से कम नहीं होतीं रानी लक्ष्मीबाई महिला सशक्तिकरण का एक सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक हैं, उनके नाम से ही महिला सशक्तिकरण अपने आप ही उभर कर आती है। 

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1835 में वाराणसी जिले के भदैनी में हुआ था। रानी को बचपन में मणिकर्णिका नाम से बुलाते थे साथ ही प्यार से उन्हें मनु भी कहा जाता था। उनकी मां का नाम भागीरथीबाई तथा पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। मोरोपन्त एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। मनु जब चार वर्ष की थीं, तभी उनकी मां की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनके पिता उनको अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए, जहां चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका प्रभावित कर दिया। 

23 साल की उम्र में रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य की कमान संभाल ली थी रानी लक्ष्मीबाई ने कई अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। वह हमारे देश की सबसे बड़ी वीरांगना के रूप में सामने आते हैं। रानी लक्ष्मी ने अपने जीते जी अंग्रेजों को जांच पर कब्जा नहीं करने दिया था। सन् 1842 में रानी लक्ष्मी बाई की शादी झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ कर दिया गया था। इसी वजह से वो झांसी की रानी कहलाने लगीं। 

विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया उसके बाद सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया था लेकिन चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गई। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवंबर, 1853 को राजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई। लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने धैर्य नहीं खोया। 

राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। राजनीतिक एजेंडे की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं।

यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ।राज्य में भी विद्रोह की चिंगारी सुलग उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई। नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे। 

उन्होंने सागर, गढ़कोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार कियाऔर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया। लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए।

रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।

उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।

कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का पूरा साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को संगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।

इधर सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ मिलकर संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा कर रहा था और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर प्रजा को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।