महिला सशक्तिकरण की मिसाल भारत कोकिला'सरोजिनी नायडू'

By Ek Baat Bata | Jun 08, 2020

भारत में अनेक स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। इसी भूमि में जन्मी महान विभूतियों में ऐसी अनेक महिलाएं भी हुई हैं, जिन्होंने अनेकों बार यह साबित किया है कि नारी शक्ति किसी से कम नहीं है। अगर अवसर मिले तो फिर वो सब कुछ कर सकती हैं। ऐसी ही एक पुण्यात्मा का हम जिक्र करेंगे, जिन्हें भारत के लोग 'सरोजिनी नायडू' के नाम से जानते हैं। सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की पहली महिला अध्यक्ष तो रहीं ही थीं, इसके अलावा वे उत्तर प्रदेश की पहली महिला राज्यपाल भी रहीं, इस प्रकार उन्होंने इस क्षेत्र में भी अपना परचम लहराया।

कवियित्री सरोजिनी नायडू को राजनीति में लाने में इनके मित्र गोपाल कृष्ण गोखले का विशेष श्रेय है। उन्हीं की प्रेरणा से राजनीति में महात्मा गाँधी के आदर्शों का अनुसरण करते हुए अपने कार्यों को पूरी ईमानदारी के साथ पूर्ण किया। राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी सरोजिनी नायडू हमेशा भारतीय महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करती रहीं।
 
महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार, पक्षपात और उनके अधिकारों की लड़ाई के लिए वो 'अखिल भारतीय महिला परिषद' से भी जुड़ी रहीं, इससे जुड़े रहने पर उन्हें लेडी धनवती रामा राव, विजयलक्ष्मी पंडित, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता जैसी बड़ी सामाजिक कार्यकर्ताओं का साथ मिला। 

1914 में दक्षिण अफ्रीका में भेदभाव वाली सरकार के विरुद्ध आवाज उठानी हो या 1919 में जलियांवाला हत्याकांड के बाद रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए महिलाओं को एकजुट करना, इसके लिए भारत कोकिला सदैव आगे रहीं।
 
इसके बाद 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करने से लेकर, किसी जनसभा को संबोधित करने या कहीं भाषण देने तक, सरोजिनी नायडू में जनता को आकर्षित और एकजुट करने की गजब की ताकत थी। अगर कोई एक बार उनका भाषण सुन लेता था, उनका प्रशंसक बन जाता था। जब वो मधुर आवाज में जोश और उत्साह के साथ बोलती थीं तो लोगों को आकर्षित करने के साथ-साथ उनमें एक प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा भी भर देतीं थी।

सरोजिनी नायडू हमेशा कहती थीं कि 'जो हाथ पलना झुला सकता है, वो हाथ देश भी चला सकता है।' बस इन हाथों को मजबूत बनाने के लिए अवसर की जरुरत है, जिनसे महिलाओं को वंचित रखा जा रहा है। जहाँ आज 21वीं सदी में महिला सशक्तिकरण की बातें करी जा रही हैं, परन्तु आज़ादी के बाद से ही इस क्रन्तिकारी महिला को भविष्य के इन मुद्दों की गहरी समझ थी। जिसे सार्थक करने में इन्होंने अनेक प्रयास किए और इन्हें पूरा भी किया, उनके नारी शिक्षा की मजबूत पक्षधर होने के सुबूत इतिहास में दर्ज हैं।
 
क्योंकि वो जब भी किसी सभा को संबोधित करतीं उन सभाओं में नारी शिक्षा की बात करते हुए कहती थीं कि "जब एक औरत शिक्षित होगी, तभी वो समाज और परिवार को शिक्षित कर पायेगी"। महिलाओं के अधिकारों के लिए सरोजिनी नायडू 'भारतीय नारी मुक्ति' आंदोलन से भी जुड़ीं और उनके योगदानों की याद करते हुए भारतीय महिला परिषद के नई दिल्ली स्थित केन्द्रीय दफ़्तर को 'सरोजिनी हाउस' के नाम से आज भी जाना जाता है।

व्यक्तिगत जीवन 
अगर उनके व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो 3 फरवरी 1879 को हैदराबाद के गांव ब्रह्मंगांव, बिक्रमपुर में जन्मी सरोजिनी नायडू के पिता 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और माता वरदा सुन्दरी थीं। केवल 12 साल की आयु में इन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास करके मद्रास विश्वविद्यालय में पहला स्थान प्राप्त किया।
 
13 वर्ष की उम्र में 1300 पदों की कविता 'झील की रानी' अंग्रेजी भाषा में, सरोजिनी नायडू को हिंदी अंग्रेजी समेत पांच भाषाओं का ज्ञान था। लंदन में उच्च शिक्षा ग्रहण करते समय 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' जो कि इनके अंग्रेज मित्र थे, उन्होंने सरोजनी नायडू को साहित्यिक ज्ञान को गंभीरता से लेने की सलाह दी, जिसके परिणाम स्वरुप सरोजिनी नायडू लगातार 20 वर्षों तक लिखती रही थीं।

उनकी लिखी हुई कविता संग्रह 'पोयम्स' नाम से 1903 में ही अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद 1905 में 'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड' प्रकाशित हुई, जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया और जिसने इन्हें भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य जगत में एक विशेष स्थान दिलाया। इसकी समीक्षा लंदन के अखबार 'लंदन-टाइम्स' और 'द मेन्चैस्टर गार्ड्यन' में भी हुई। इस प्रकार समझा जा सकता है कि सरोजिनी नायडू एक साहित्यकार के रूप भी मजबूत स्तम्भ रहीं। उनकी कविता संग्रह 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने भी उन्हें कविता और साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि दिलाई।

सरोजिनी नायडू के दृढ़ निश्चय और प्रगतिवादी विचारधारा के बारे में, इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय जब औरतों को केवल नाममात्र के ही अधिकार प्राप्त थे, उस समय में उन्होंने अंतरजातीय प्रेम-विवाह करने का फैसला लिया और उस फैसले पर वो डटी भी रहीं।उन्होंने डॉ. गोविन्दराजुलु नायडू से विवाह किया और यह साबित किया कि अपने जीवन का फैसला करने का अधिकार हर महिला को होना चाहिए, लेकिन इसके लिए जरुरी है कि हर व्यक्ति अपनी योग्यता साबित करे।

आज के समय में भी बहुत सारे लड़के-लड़कियां प्रेम विवाह करते हैं पर जल्दी ही जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए भागते हैं, ऐसी मानसिकता के लिए सरोजिनी नायडू का जीवन एक प्रेरणा है, जिन्होंने सभी सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारियां निभाते हुए अपने शादीशुदा जीवन की जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभाया।
 
अपना पूर्ण जीवन देश पर न्यौछावर कर देने वालीं सरोजिनी नायडू ने 2 मार्च सन् 1949 को अपनी अंतिम सांसे ली और अपने पीछे सबके लिए एक उदासी और सूनापन छोड़ गयीं। महिला अधिकारों की सबसे बड़ी आवाज उनके समय में कोई अन्य नही थी। इसलिए आज भी महिला सशक्तिकरण की मात्र बातें करने वाले उनके सामने कुछ भी नहीं है। भारत कोकिला के रूप में मशहूर रहीं सरोजिनी नायडू की जगह आज भी रिक्त है।देश उन्हें सदैव याद रखेगा।