जानिए इंदिरा गांधी क्यों परिवार, पति और बच्चों के बीच बिताना चाहती थीं जिंदगी?

By Ek Baat Bata | Jul 04, 2020

जी हां भारत की प्रथम यों कहें कि अद्वितीय महिला प्रधानमंत्री इंदिरा ने आखिर किस वजह से अपने पिता और भारत के पहले प्रधानमंत्री से कहा था कि मुझे परिवारिक जीवन बिताते हुए बच्चों को पैदा कर उन्हें पालना और मां की ममता सुख भोगना है और पति का प्यार पाना है, वहीं आखिर किस तरह के समीकरण बने कि पति परिवार और बच्चों से इतर इंदिरा राजनीति की उस पराकाष्ठा को पार कर सियासती भवसागर में गोते लगाते हुए भारत का नेतृत्व थामने को विवश की गयीं या मन की चाह के साथ बन रही राह को अपनाते हुए राजनीति में आईं। 

आज इस लेख में इंदिरा के इसी सफरनामे की कहानी को कुछ यूं पिरोने की कोशिश करेंगे, जैसे असल में उनकी जिंदगी के फलसफे रहे। साथ ही वो कारण भी बताएंगे जब भारत की बागडोर थामे बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा ने कुछ ऐसे करतब किए कि सीमाई चौकठों के बाहर भारत का डंका बजा और सरकार की कमियों पर उधेड़बुन करने का जिम्मा रखने वाले विपक्ष के शीर्ष नेताओं में से और आगे चलकर स्वंय भारत के प्रधानमंत्री बनने वाले स्व. अटल जी ने इंदिरा को दुर्गा का अवतार बताया था।

इंदिरा का शुरुआती जीवन कुछ ऐसा रहा?
इलाहाबाद के प्रसिद्ध वकील और स्वतंत्रता सेनानी पं. मोतीलाल नेहरू के घर 19 नवंबर 1917 के दिन घर नन्ही बच्ची के रूप में किलकारी गूंजती है, भला तब किसने सोचा कि ये बच्ची भारत की भावी महिला प्रधानमंत्री बनेगी। पं. मोतीलाल इंदिरा के बाबा थे और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर नेहरू के पिता।
 
इंदिरा की मां कमला नेहरू अक्सर बीमार रहतीं और पिता जवाहर लाल नेहरू अक्सर राजनीति के दांवपेचों में उलझे रहते। इस कारण इंदिरा अपने बाबा पं. मोतीलाल के बेहद करीब थीं। इंदिरा की उम्र जब पढ़ने की हुई तो विद्यालय में दाखिले का प्रश्न आ खड़ा हुआ तब पं. जवाहर लाल नेहरू ने इंदिरा की पढ़ाई इलाहाबाद से ही अपने घर से प्रारंभ कराते हुए घर आकर पढ़ाने वाले शिक्षकों का प्रबंध किया। 

इंदिरा करीब 16-17 साल की रहीं तब उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी हुई तो पिता ने पश्चिम बंगाल के वीरभूमि स्थित रविन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन में खोले गये विश्व भारती विश्वविद्यालय भेज दिया। रविन्द्रनाथ ने इंदिरा को अपनी प्रिय शिष्या के रुप में स्वीकार करते हुए बेहद लगाव के चलते एक नया नाम भी दिया और वो नाम था प्रियदर्शिनी इस नाम के मिलने के बाद अब इंदिरा नेहरू नहीं बल्कि इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू बन चुकी थीं।

कैसे एक पारसी परिवार का लड़का इंदिरा का दिल जीतने में सफल रहा?
बात उस दौर की है जब इंदिरा को शान्ति निकेतन जाना था और मां कमला नेहरू लगातार यात्राएं कर रहीं थी, स्वतंत्रता की लड़ाई में अहम भागीदारी का निर्वहन कर रहीं थीं लेकिन एक पारसी नौजवान जो बाद ने पारसी से गांधी बन गया वो कमला का चहेता और स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में इंदिरा की मां कमला का सहयोगी बन गया। ये पारसी नौजवान तब के बंबई के एक पारसी परिवार का सदस्य था जिसका पूरा नाम फिरोज जहांगीर घांदी था, जिसने बाद में अपना नाम बदलकर घांदी से गांधी कर लिया। 

फिरोज महज 18 वर्ष के रहे होंगे जब उनका झुकाव स्वतंत्रता आंदोलन की ओर हुआ और वो इससे जुड़ गये। फिरोज का बंबई और इलाहाबाद आना जाना लगा रहता था, इसका मुख्य कारण था कि जवाहर लाल नेहरू से फिरोज के करीबी रिश्ते थे, क्योंकि स्वतंत्रता की लड़ाई में फिरोज नये योद्धा थे जबकि नेहरू पुराने। कमला नेहरू एक स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रम के दौरान मंच पर मौजूद थीं और उनकी तबियत बिगड़ती है मंच पर साथ में फिरोज भी मौजूद होते हैं, तुरंत फिरोज ने कमला नेहरू के बेसुध शरीर का उपचार कराया। 

1935 में इंदिरा की मां की तबियत खराब हुई तो यूरोप में इलाज के लिए फिरोज कमला नेहरू के साथ रहे और इसी बीच इंदिरा और फिरोज दोनों की नजदीकियां बढ़ीं। लेकिन इंदिरा और फिरोज की कहानी का ये दूसरा पन्ना था क्योंकि फिरोज इंदिरा को पहले से ही चाहने लगे थे जिसका जिक्र उन्होंने इंदिरा से किया भी था लेकिन इंदिरा की मां ने इंदिरा की उम्र का हवाला देकर फिरोज को इस रिश्ते से केवल इसलिए मना किया था क्योंकि इंदिरा उस समय महज 16 साल की थीं। इंदिरा जब लंदन पढ़ाई करने के लिए गईं थी तब भी फिरोज और इंदिरा की मुलाकातें होती रहीं ऐसा इसलिए क्योंकि इलाहाबाद से फिरोज और इंदिरा की पहचान बन चुकी थी। 

लेकिन यूरोप में इंदिरा की मां कमला नेहरू ने 28 फरवरी 1936 को दुनिया को अलविदा कह दिया और फिरोज और इंदिरा में नजदीकियां कुछ इस कदर बढ़ी कि साल 1942 में दोनों ने शादी कर ली। कहा ये भी जाता है कि नेहरू इस रिश्ते से बिल्कुल खुश नहीं थे।
 
लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जवाहर लाल नेहरू जेल में थे और इंदिरा ने अपने पिता से मुलाकात के करते हुए कहा कि मैं शादी करके जीवन के मनोरम संगीत को गुनगुनाना चाहती हुं बच्चों कि देखभाल में दिन बिताना चाहती हुं। दरअसल इंदिरा को कुछ ऐसी समस्या थी जिससे उनके बच्चे जन्म देने में समस्या हो सकती थी। जिसका जिक्र करते हुए नेहरू ने इंदिरा को शादी करने से चेताया भी था लेकिन इंदिरा नहीं मानीं और फिरोज गांधी के साथ जीवनसंगिनी बनने का फैसला किया।

इंदिरा का राजनीतिक पदार्पण कैसे हुआ?
ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से ही इंडियन लीग की सदस्यता लेकर इंदिरा स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहीं आजादी के पहले 1942-43 के दौरान जेल भी गईं और जब भारत आजाद हुआ तो क्योंकि जवाहर लाल नेहरू आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने इसलिए राजनीति और सियासत को इंदिरा भी भलीभांति समझने लगीं थी, अपने पति फिरोज के रायबरेली के आम चुनावों के दौरान प्रचार-प्रसार में हिस्सा लेने वाली इंदिरा ने अपने पति को छोड़ पिता की राजनीतिक विरासत को अपनाने दिल्ली चली आयीं बस अपनी सलाह-मशवरों को नेहरू इंदिरा से साझा करते इंदिरा सुझावों के पुलिंदे अपने पिता और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री को सौंपा करतीं। 

देखते ही देखते इंदिरा में राजनीति की चंचल लहरें हिलोरे मारने लगीं और सियासती तेवरों की रसीली बूदें कांग्रेस को मीठी लगने लगीं एक युवा नेतृत्व क्षमता की आवश्यकता कहें या राजनीति के नए युग का आरंभ कहें जब कांग्रेस की कार्यकारिणी में इंदिरा को शामिल किया गया था तब भी किसी ने ये नहीं सोचा होगा कि इंदिरा में राजनीति के उबलते और उफनाते समुद्र में नैया खेने का साहस नजर आएगा। साल 1955 में इंदिरा कांग्रेस की कार्यकारिणी में शामिल हुईं थी। लेकिन इंदिरा ने अपने राजनीतिक छोर की आगे चलकर बागडोर थामने वाले दो सुपुत्रों को जन्म दे दिया था। 

इंदिरा के दो लाल और दोनों कमाल?
इंदिरा ने 1944 में राजीव गांधी को जन्म दिया वहीं 1946 में संजय गांधी ने इंदिरा की दूसरी संतान के रूप में जन्म लिया। अब जबकि इंदिरा दिल्ली में अपने दोनों बेटों राजीव और संजय के साथ थीं तो उनके पति फिरोज से इंदिऱा की दूरियां बढ़ चुकी थी।
 
कांग्रेस में शामिल होने के बाद उनका राजनीतिक कद बढ़ने में वक्त बिल्कुल नहीं लगा और साल 1959 में इंदिरा को कांग्रेस की बतौर राष्ट्रीय अध्यक्षा चुन ली गईं। जिसका हल्का विरोध दबे सुर में हुआ जरूर लेकिन खुलकर कोई सामने नहीं आ सका इसे नेहरू की सख्शियत का खौफ कहें तो गलत नहीं होगा। साल 1960 से 1970 के दरम्यान इंदिरा ने अपने पति फिरोज और अपने पिता तथा भारत ने अपने प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को खोया। 

इंदिरा को कांग्रेस सरकार में बनाया गया मंत्री?
27 मई 1964 को जवाहर लाल नेहरू ने दुनिया को अलविदा कहा। इसे हम नेहरू युग का अंत तो कह सकते हैं लेकिन इंदिरा के युग की शुरूआत नहीं, क्योंकि नेहरू के बाद देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री ने संभाली। इसी सरकार में इंदिरा को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय जैसी अहम जिम्मेदारी सौंपी गई। ये वाकया 1964-65 के मध्य का है और 1965 में भारत पाक्स्तिान के बीच जंग छिड़ गई। इंदिरा ने इस दौरान जमकर काम किया। आकाशवाणी के द्वारा देश के आमजनों को संबोधित करते हुए राष्ट्रहित की भावना को जाग्रत करती रहीं।  

इंदिरा ने सत्ता की बागडोर थामकर की राजनीतिक युग की शुरूआत?
1966 में जब शास्त्री जी कि संदिग्ध मौत ताशकंद में हुई तो पहली बार प्रधानमंत्री के बाद के लिए इंदिरा के नाम का सुझाव कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के. कामराज ने किया इसके बावजूद कांग्रेस के उस समय के कद्दावर नेता रहे मोरार जी देसाई ने अंतर्विरोध उत्पन्न करते हुए स्वंय को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही लेकिन उनके इस प्रस्ताव को तवज्जो नहीं दी।
 
यहीं से कांग्रेस में फूट का पहला बीज पनपा जो समय के साथ फलता-फूलता गया। खैर इन सबके बाद भी इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज करते हुए भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

इंदिरा के वो फैसले जिनसे कई राजनैतिक घटनाएं घटित हुईं?
भारत की प्रधानमंत्री बनने के बाद कई साहसिक कदम इंदिरा गांधी ने उठाए इस दौरान कई और राजनैतिक घटनाएं घटित हुईं, कांग्रेस में फूट, इंदिरा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगना, इंदिरा का विपक्ष को एकतरफा हराकर सत्ता पर काबिज होना, देश भर में इंदिरा सरकार के खिलाफ विरोध के सुर पनपना, इंदिरा का इमरजेंसी लगाकर देश के सभी कानूनों को नियमों को शिथिल करते हुए विपक्षी नेताओं को जेल में डालना, सरकार का पूर्णकालिक समायोजन ना होने से गिर जाना आदि कई चीजें घटित होती हैं। लेकिन इंदिरा जैसी नारी के साहसिक कदमों को नकारा नहीं जा सकता चाहे वो पहला परमाणु परीक्षण हो, बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बात हो। 

इंदिरा की मौत का असल कारण?
सरकार के क्रियान्वयन में खूबियों के साथ खामियों का अम्बार भी इंदिरा के माथे पर चढ़ता जा रहा था, पंजाब की सरजमीं में अलगाववाद की बयार तेजी से बह रही थी जिस पर इंदिरा ने सख्ती दिखाते हुए पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार का नाम देकर अलगाववादी ताकतों को निष्क्रिय करने के उद्देश्य से स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश की अनुमति दे दी जो आखिरकार इंदिरा की मौत का कारण बना। सिखों के मन में इंदिरा के लिए नफरत का दौर उपजा जिसकी वजह से इंदिरा की सुरक्षा में मौजूद दो सुरक्षाकर्मियों सतवंत और बेअंत सिंह ने इंदिरा की गोली मारकर हत्या कर दी। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी ने दूसरी दुनिया का रूख कर लिया।